भारतीय साहित्य में विभाजन का दर्द
15 अगस्त 1947, के दिन जब देश 200 साल की अंग्रेजों की गुलामी से आज़ाद हुआ , तो जहां एक ओर देश के आज़ाद होने की खुशी थी , तो वहीं दूसरी तरफ विभाजन का दर्द भी भारत के नसीब में लिखा जा चुका था। स्वतंत्रता मिलने के साथ ही देश के दो टुकड़े हो गए। भारत का लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा कटकर एक नया देश पाकिस्तान बना। राजधानी दिल्ली एक तरफ आज़ादी का जश्न मनाने के लिए तैयार हो रही थी। लाल किले पर देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने राष्ट्रीय ध्वज फहराकर देश के स्वाधीन होने की घोषणा की। एक तरफ देश आज़ादी का जश्न मना रहा था , तो वहीं दूसरी ओर देश का एक हिस्सा धू-धू कर जलने लगा। हिन्दुस्तान बंटवारे की त्रासदी से गुजर रहा था। खुशी का मौका पलभर में खून और दहशत में बदल गया था। कम से कम डेढ़ करोड़ लोग अपना घर-बार छोडने पर मजबूर हो गए। इस दौरान हुई लूटपाट , बलात्कार और हिंसा में कम से कम पंद्रह लाख लोगों के मरने और अन्य लाखों लोगों के घायल होने का अनुमान है. बंटवारे में न सिर्फ देश को बांटा गया बल्कि लोगों के दिल भी बांटने की कोशिश की गयी। विभाजन के इसी दर्द को भारतीय साहित्यकार
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