बाबूजी की साईकिल : अभिनव
सांवले रंग,
नाटे कद और कमीज़-पतलून के सीधे-सादे परिधान में सुबह-सुबह बाबूजी अपने विद्यालय
चले जाया करते थे। उनके व्यक्तित्व में विशेष प्रकार की जिजीविषा थी। वे सदा मंद
मुस्कान लिए घर से रुकसत होते थे। उनका चेहरा साधारण था परंतु फिर भी आकर्षक था।
उनके चेहरे पर चेचक के गहरे दाग थे परंतु इससे किसी भी प्रकार की कुरूपता न आई थी।
सभी से नमस्कार करते हुए जब वे अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान करते थे तब ऐसा प्रतीत
होता था जैसे कोई शिक्षक नहीं बल्कि कोई निर्दोष विद्यार्थी विद्यालय जा रहा हो।
बाबूजी का मानना भी था कि एक शिक्षक को जीवन भर एक विद्यार्थी बने रहना चाहिए। ताकि
वो सीखने-सिखाने की परंपरा में सदैव सशक्त बना रहे। इन सबके बीच उनकी प्रिय एवं
सहयोगी साथी उनके साथ ज़रूर होती थी जो उन्हें उनके गंतव्य तक प्रतिदिन पहुंचाती थी।
उनके व्यक्तिव को वो पूर्ण-रूपेण सार्थक करती थी। वो निरंतर आगे बढ़ने का परिचायक
थी और वह थी उनकी साईकिल।
बाबूजी ने न जाने कितने मेले,
बगीचों आदि की सैर हम दोनों भाईयों को करायी थी। पीछे मैं,
सीट पर बाबूजी और साईकिल के अगले डंडे पर एक सीट बनवा दी गई थी जिस पर मेरा छोटा
भाई बैठता था। आज भी वो स्मृतियाँ मुझे आनंद की अनुभूति करा जाती हैं। कभी-कभी तो
ऐसा होता था कि बिना साईकिल के बाबूजी को लोग पहचान नहीं पाते थे। घर से निकलने का
मतलब था कि बाबूजी साईकिल साथ लेकर ही निकलेंगे। कहने का तात्पर्य यह है कि बाबूजी
को साईकिल बहुत प्रिय थी। साईकिल के प्रति उनका गहरा लगाव होने का कारण भी था।
बाबूजी ने साईकिल अपनी नौकरी के पहले वेतन से ली थी। उन्होंने अपने बचपन में खूब
अभाव झेला था। उनको छोटी-छोटी चीज़ों के लिए संघर्ष करना पड़ता था। साईकिल उनकी
पहुँच से कोसों दूर थी। उन्होंने अपने मित्रों की साईकिल कई बार चलायी थी। और जब
उनकी नौकरी लगी तब सबसे पहले वेतन से उन्होंने साईकिल ली। उस समय हमारे घर के अड़ोस-पड़ोस
में साईकिल घर की शोभा बढ़ाती थी। जैसे आँगन में तुलसी या गाय शोभा बढ़ाती है वैसे
ही। समय के साथ-साथ पड़ोस में स्कूटर, मोटर
साईकिल और फिर कार ने साईकिल की जगह ले ली। पर हमारे घर में साईकिल का सम्मान बना
रहा। हम दोनों भाई बड़े होते गए अब हमें साईकिल पर विद्यालय जाना पसंद नहीं था।
हमारे दोस्त स्कूटर, मोटर साईकिल या कार से
स्कूल जाते थे। हमें साईकिल की तुलना में अब पैदल चलना ठीक लगता था ताकि हमारे
दोस्त हम पर हँसे नहीं। हमारा समय अब बाबूजी के साथ कम बीतने लगा क्योंकि हम अब
साईकिल पर घूमने नहीं जाते थे। परंतु बाबूजी को इससे कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा।
वो साईकिल लेकर घर से निकलते और रात तक लौट आते उनको कभी भी अकेलापन महसूस नहीं
होता था क्योंकि उनकी परम मित्र सदैव उनके साथ चलती थी,
उनकी साईकिल।
हम दोनों भाई अब कॉलेज परिसर में प्रवेश
लेने योग्य हो गए थे। हमने मोटर साईकिल की अपनी मनोकामना पूरी की और घर में मोटर
साईकिल आ गई। दोनों भाई झूम उठे थे और बारी-बारी से उसे चलाने लगे। परंतु वर्ष भी
न बिता था हमारी उमंग धूमिल पड़ गई। पर हाँ बाबूजी का लगाव और पसंद साईकिल के प्रति
धूमिल न पड़ी थी। वो तो समय के साथ और भी प्रगाढ़ हो चली थी। और होती भी क्यों नहीं साईकिल
तो बाबूजी की दिनचर्या का अंग थी। अब हम दोनों भाई कार के लिए लालायित हो उठे थे।
परंतु कार हमारी पहुँच से दूर थी। हम दोनों भाई को बाबूजी ने एक दिन समझाया था,
इतना उत्साह ठीक नहीं है। मानव स्वभाव की यह दुर्बलता है कि ‘जितना
मिले मानव को उतना कम ही लगता है’। जो
तुम्हारे पास है उसका आनंद लो उसे अपने जीवन में उतारो। पर हमारी युवा सोच और समाज
में दूसरों से श्रेष्ठ बनने की उत्कंठा के कारणवश हमने उनके वचनों को अनसुना कर
दिया।
अब बाबूजी रिटायर हो चुके थे। हमको लगा
अब शायद उनका साईकिल से संबंध समाप्त हो जाएगा। परंतु ऐसा नहीं हुआ। सुबह-सुबह
बगीचे की सैर और रसोई का सामान लाने का जिम्मा बाबूजी ने ले लिया और उनकी पुरानी
मित्र उनके साथ रही। हम दोनों भाईयों ने भी पढ़ाई समाप्त कर ली थी। अब हम दोनों
भाइयों ने अपनी उत्कंठावश कार खरीदने पर ज़ोर दिया और बाबूजी के प्रोविडेंट फंड के
पैसों से कार खरीद ली। अब हम दोनों भाइयों की खुशी का ठिकाना नहीं था। हमने पूरे
मोहल्ले में कार को खूब हाँका जैसे नुमाईश के लिए कोई निकलता है न वैसे। आनंद से
ज्यादा दूसरों को दिखाकर जलन महसूस कराने की मंशा जो थी। अपनी धुन में हमने गाड़ी
अब घर की ओर ली। बाबूजी की साईकिल आँगन में ही खड़ी थी हमने उतना ध्यान न दिया और
साइकिल अब कार के नीचे कुचल गई थी। हमें लगा बाबूजी हमें डाटेंगे,
मारेंगे, कोसेंगे पर बाबूजी दौड़ते हुए
आए और साईकिल को उठाने लगे,
दौड़कर
रिपेयर वाले के पास गए। कार ने साईकिल के परखच्चे उड़ा दिये थे,
रिपेयर वाले ने कहा अरे बाबूजी छोड़िए,
पुरानी साईकिल थी अब तो कार आ गई है क्या जरूरी है साईकिल की। बाबूजी को देखकर ऐसा
लग रहा था जैसे घर का कोई सदस्य संसार से विदा हो गया हो। उनका खाना-पीना बंद हो गया
था। दिन-रात टूटी साईकिल को ठीक करने की जुगत में भिड़े रहते थे पर इन सब बातों से
अनभिज्ञ हम कार लेकर घूमते रहे।
एक दिन कार लेकर हम मोहल्ले में तेजी से
घुसे और गली के मोड़ पर परली दीवार से गाड़ी जा टकराई। हमारे तो रोंगटे खड़े हो गए
ऐसा लगा जैसे हमारे शरीर के किसी अंग पर आघात हुआ हो। कार नई थी,
हमारे पसंद की थी, हमारा लगाव उससे कम न
हुआ था इसीलिए शायद हम उस दर्द के करीब जा पहुँचे थे जिस दर्द के सागर में बाबूजी
डूबे हुए थे। हम दोनों भाई कार से निकले,
दौड़कर घर पहुँचे और बाबूजी के चरणों में शरण ली। हम दोनों भाई अपनी गलती पर फूट-फूट
कर रो रहे थे। हमें अहसास हो चुका था कि हमने अपनी खुशी में बाबूजी के दु:ख को
भुला दिया था। और बाबूजी ने कभी भी हमें हमारी गलती के लिए कोसा नहीं,
बड़ी ही सरलता के साथ हमें माफ कर दिया था।
पूरी रात हम दोनों भाई बाबूजी के दाएं-बाएं बैठे आँसू बहाते रहे और बाबूजी हमारे
सिर पर हाथ फेरते रहे। हम दोनों भाइयों को एक-एक कर बाबूजी के साथ बितायी गई बचपन
की सभी स्मृतियाँ नज़र आ रही थी। मैंने अपने छोटे भाई की ओर देखा उसने भी मेरी मंशा
समझ ली थी। हम तेज़ी से निकले और गली के मोड़ पर जाकर बाबूजी की आँखों से ओंझल हो
गए। बाबूजी भी घर के अंदर जाकर लेट गए। जब बाबूजी की आँख खुली तो साँझ हो चुकी थी।
बाबूजी ने अम्मा से पूछा दोनों भाई कहाँ हैं अम्मा ने न में सिर हिलाया। बाबूजी
समझ गए कि अम्मा को हमारा संज्ञान नहीं है। बाबूजी आँगन गए उन्हें टूटी हुई साईकिल
भी न दिखी उनका कंठ सूख गया। उन्होंने अपने कदम घर के मुख्य द्वार पर बढ़ाए द्वार
पर पहुँचते ही वो अवाक! रह गए द्वार पर उनकी प्रिय साईकिल के साथ हम दोनों भाई खड़े
थे।
बाबूजी अब साईकिल से लिपटे बच्चों की तरह
रो रहे थे। अम्मा भी भीतर से द्वार पर आ गई बाबूजी के आँसू पोछते हुए बोली,
दोनों भाई रिपेयर वाले को लेकर आए और साईकिल के नए पूर्जों से आपकी साईकिल तैयार करवा
दी। यह जानकार बाबूजी अब और तेजी से आँसू बहाने लगे उन्हें देख कर लगा कि सत्य ही
कहा गया है ‘एक वृद्ध व्यक्ति,
शिशु के समान होता है’। बाबूजी ने आँसू पोंछकर
हम दोनों भाइयों को गले से लगाया और बोले साँझ की सैर पर चलें,
हमने
हाँ में सिर हिलाया। उस साँझ हमने खूब बातें की और बचपन की यादें ताज़ा की। कुछ समय
बाद बाबूजी बोले अब घर चलते हैं,
अंधेरा होने वाला है तुम्हारी अम्मा प्रतीक्षा करती होगी,
आओ चलें। सूर्य अस्त हो रहा था,
सूर्य की किरणें मंद हो चली थी पर हमारे अंतःकरण में प्रकाश ही प्रकाश था। हम गली
के मोड़ पर पहुँच चुके थे। कार अब भी दुर्घटना स्थल पर खड़ी थी,
घर के मुख्य द्वार पर अम्मा हमारी प्रतीक्षा में खड़ी थी। द्वार पर पहुँचते ही
अम्मा ने कहा चारों को आने में इतना समय क्यों लग गया?
हम असमंजस में पड़ गए चारों! चौथा कौन?
अम्मा हँस कर बोली तुम्हारे बाबूजी, तुम
दोनों और चौथी तुम्हारे बाबूजी की साईकिल।
हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला।
बाबू जी की साइकिल कहानी, बाबू जी के त्याग और परिवार के प्रति अपने कर्तव्य को उजागर करती हुई यथार्थ जीवन पर आधारित सरल और स्पष्ट कहानी है। किस तरह कार्यरत रहते हुए बाबू जी ने अपनी पूरी ज़िंदगी अभाव में गुज़ार दी, लेकिन परिवार के प्रति अपने कर्तव्य तथा दोनों पुत्रों की खुशियों में कतई भी सिकन की एक आंच तक नही आने दी। बेजान सी साइकिल के प्रति पिता जी का लगाव इस बात से जगजाहिर होता है, जब उनके पुत्रो की गलती की वजह से साइकिल गाड़ी के नीचे आने से टूट जाती है और पता चलने पर वो रोना शुरू कर देते है तथा उनके पुत्रो के द्वारा साइकिल को रिपेयर करके पुनः नई जैसी बनाना , इस दृश्य को देखते ही बाबू जी की खुशी का ठिकाना ही नही रहता। साइकिल से उन्हें उतना ही प्रेम था जितना कि आने परिवार और पुत्रो से। यह कहानी एक ही परिवार की नही बल्कि भारत के हरेक परिवार की है। यह परिवार के अटूट गठबंधन को दर्शाती कहानी एक व्यक्ति के परिवार के प्रति कर्तव्य और आत्म समर्पण की कहानी है।
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