मलबे का मालिक: मोहन राकेश

मोहन राकेश पूरे साढ़े सात साल के बाद लाहौर से अमृतसर आए थे। हॉकी का मैच देखने का तो बहाना ही था , उन्हें ज़्यादा चाव उन घरों और बाज़ारों को फिर से देखने का था , जो साढ़े सात साल पहले उनके लिए पराए हो गए थे। हर सड़क पर मुसलमानों की कोई न कोई टोली घूमती नज़र आ जाती थी। उनकी आंखें इस आग्रह के साथ वहां की हर चीज़ को देख रही थीं , जैसे वह शहर साधारण शहर न होकर एक ख़ास आकर्षण का केन्द्र हो। तंग बाज़ारों में से गुज़रते हुए वे एक-दूसरे को पुरानी चीज़ों की याद दिला रहे थे-देख , फतहदीना , मिसरी बाज़ार में अब मिसरी की दुकानें पहले से कितनी कम रह गई हैं। उस नुक्कड़ पर सुक्खी भठियारन की भट्ठी थी , जहां अब वह पान वाला बैठा है। यह नमक मण्डी देख लो , ख़ान साहब! यहां की एक-एक ललाइन वह नमकीन होती है कि बस! बहुत दिनों के बाद बाज़ारों में तुर्रेदार पगड़ियां और लाल तुर्की टोपियां दिखाई दे रही थीं। लाहौर से आए हुए मुसलमानों में काफ़ी संख्या ऐसे लोगों की थी , जिन्हें विभाजन के समय मजबूर होकर अमृतसर छोड़कर जाना पड़ा था। साढ़े सात साल में आए अनिवार्य परिवर्तनों को देखकर कहीं उनकी आंखों में हैरानी भर